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Hindi News / State / Who is making Ujjain infertile
नेतानगरी के आगे आखिर आज तक किसकी चली है? इस बार भी वही हो रहा है कि जिनका खुद का भविष्य दांव पर है, उन्होंने अच्छे-अच्छों के भविष्य को चौपट करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है! उम्मीदवारों का चयन करना था, महापौर और पार्षद के पदों के लिए, लेकिन नेतागिरी की चौसर पर ऐसी-ऐसी चालें चली गईं हैं कि शैक्षणिक रूप से योग्य, प्रशासनिक काम-काज को समझनेवाले, उजली छविवाले और कर्मठ एवं समर्पित लोग घर बैठा दिए गए। स्थानीय कर्ता-धर्ताओं के जो बॉस लोग भोपाल में वातानुकूलित कमरों में लेटते और बैठते हैं, उनका बर्ताव भी अब खुलकर सामने आ चुका है। इन स्वनामधन्य नेताओं को तो इतनी फुर्सत तक नहीं मिली कि वो कम से कम महापौर पद के प्रत्याशियों का उत्साह बढ़ाने आ जाते, नामांकन-पत्र जमा करते वक़्त! ऐसे में, उज्जैन का स्वर्णिम भविष्य बनाने की बातें करनेवालों को कितना महत्व दिया जाए..?
उज्जैन के राजनीतिक परिदृश्य में इन दिनों भीषण आग धधक रही है। अंदर भी और बाहर भी! भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दल असंतोष और विद्रोह की आग से झुलस रहे हैं। टिकट बांटने के नाम पर जो-जो भी अठखेलियां और आंख-मिचौनी की गई, उसकी हकीकत भी धीरे-धीरे और छन-छन कर व्यापक समाज के बीच आ चुकी है। पार्टी मुख्यालयों पर जारी उग्र प्रदर्शन मनमानियों का ही तो प्रतिकार है। टिकट की बंदरबांट करनेवाले तथाकथित नेताओं के अलसुबह के आनंददायक पलों से लेकर देर रात तक के हसीन घंटे हराम हो चुके हैं। पट्ठावाद, भाई-भतीजावाद, जातिवाद, उप-जातिवाद, नस्लवाद और धन की सौदेबाजी के चलते दरकिनार कर दिए गए ‘वास्तविक’उम्मीदवार टोह लेते फिर रहे हैं कि कहां नेताजी मिल जाएं और वो उनकी अच्छे से हजामत बना डालें।
भाजपा में खतरनाक सिर फुट्टवल चल रही है। इस पार्टी की केंद्र (दिल्ली) में तो सरकार है, लेकिन राज्य (मध्यप्रदेश) में बलात कयाम की गई सरकार है। सो, इसके मंत्री, विधायक, सांसद और संगठन के अधिकारी-पदाधिकारी अब शुचिता की वो बात करते और उसका पालन करते दिखाई नहीं देते, जो इन्होंने ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ (आरएसएस) की शाखाओं में या प्रशिक्षण शिविरों में सीखा और गाहे-बगाहे जिसकी डिंगे ये हांकते रहते हैं। सबको मालूम पड़ चुका है कि पार्टी संगठन के मुख्य पदाधिकारी अपने ‘धंधे’की वजह से मौन धारण करे रहते हैं। मंत्री, विधायक, सांसद या तो ‘कपट संधि’ कर लेते हैं या फिर एक-दूसरे को निपटाने में लग जाते हैं। पार्टी नेतृत्व ने आंखे मूंदकर उक्त प्रजाति के लोगों को उम्मीदवार चुनने का अख्तियार दे दिया और इसीलिए उन्होंने एक उभरते कुशल नेतृत्व को ही बांझ बना दिया।
कांग्रेस कल्चर की तो जितनी दुहाई दी जाए कम होगा। पार्टी का विधायक अन्य 20-30 विधायकों की तरह भाजपा द्वारा नहीं खरीद लिया जाए, तो उसे झुनझुना थमा दिया गया, महापौर का प्रत्याशी घोषित करके! अब ठेठ तराना का (नवोदित) कांग्रेस विधायक उज्जैन शहर का प्रथम नागरिक बनने के सपने देख रहा है। 2024 में शायद यही सज्जन कांग्रेस द्वारा लोकसभा चुनाव में उतार दिए जाएं।अजीब विडम्बना है कि कांग्रेस के पास उज्जैन जिले से तीसरी बार के विधायक रामलाल मालवीय हैं, पर ना तो कमल नाथ सरकार के 15 माह के अस्तित्व में उन्हें मंत्री बनाना उचित समझा गया और ना ही महापौर पद पर लड़वाने के काबिल समझा गया, जबकि वो उज्जैन और इसके आस-पास ही सक्रिय रहते हैं। कुछ दिन भारत में और ज्यादा दिन विदेशों में रहने वाले (बड़े) “साहब” के गुट के जलवे तो बेमिसाल हैं। इंदौर, सोनकच्छ और बड़वानी से अवतरित उक्त साहब के बहकते-ढलते, छोटे-मोटे, गले-पिटे साहब लोग और उज्जैन के मठाधीश ने जो ग़दर मचाया है उसकी बानगी तो देखे ना दिखे। विपक्ष की आवाज बनने से पहले ही कइयों को रोंद दिया गया है। सिमटते दायरों के बीच खुराफातों के खिलाड़ी अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आ रहे।
नगरीय निकाय निर्वाचन की जो व्यवस्था वर्तमान में प्रचलित है और इस बाबत सुप्रीम कोर्ट के जो आदेश चलन में हैं, उसके अनुसार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों के लिए कोई 50 फीसदी आरक्षण हर निर्वाचन क्षेत्र के लिए सुनिश्चित है। जाहिर तौर पर शेष 50 फीसदी पद “अनारक्षित” केटेगरी के हैं। उक्त दोनों ही केटेगरी में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई है, लेकिन मगरूर टिकट बांटनेवालों ने ‘संविधान’ प्रदत्त आरक्षण व्यवस्था को ही पलट दिया है। उज्जैन नगर निगम चुनाव में ‘अनारक्षित’ पदों पर टिकट वितरण करने में “ऐतिहसिक” “पक्षपात” और “भूल” की गई हैं। सबसे ज्यादा गड़बड़ी ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ के लोगों को प्राथमिकता देने में की गई है। अनारक्षित महिला वार्ड से अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के प्रतिनिधियों को तवज्जों दी गई है। इस कदर हदें लांघी गई हैं कि पुरुष (अनारक्षित) वार्ड से दीगर जातियों की महिलाओं को टिकट दे दिया गया है और जो आरक्षित वार्ड हैं, वहां भी जातिगत समीकरणों के उलट अपने-अपनों को उपकृत कर दिया गया है।
ये जो चुनाव होने जा रहे हैं वो संवैधानिक व्यवस्था के तहत होने जा रहे हैं ना कि राजनीतिक/दलीय/जातीय/व्यक्तिगत आधार पर। जो आज पांव-पांव घूम रहे हैं और देखते ही देखते लाखों-करोड़ों के मकान/वाहन सहित बेहिसाब घोषित और अघोषित संपत्ति के मालिक बन जाते हैं, उनसे उनके मतदाता बहुत कुछ उम्मीदें रखते हैं। जो भी दमकती और झिलमिलाती व्यवस्थाएं हैं वो ना तो भाजपा के एजेंडे से चलेंगी और ना कांग्रेस के। और ना अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग अथवा लिंग भेद के आधार पर चलेंगी। मामला आखिर “करदाताओं” की मेहरबानी पर ही आकर टिकेगा और यदि उन्हीं करदाताओं के साथ राजनीतिक दल, उनके आका और उनके लठैत, किस्म-किस्म के खिलवाड़ करेंगे तो ये एक सभ्य और खुले विचारों वाले समाज के साथ बहुत बड़ा अन्याय होगा।
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